आयुर्वेद के बारे में जानिए सबकुछ । वात, पित्त एवं कफ क्या है ।

आयुर्वेद के बारे में जाने सबकुछ ।




वात, पित्त एवं कफ क्या है ?


वात, पित्त एवं कफ ये तीन दोष शरीर में जाने जाते हैं। ये दोष यदि विकृत हो जाये तो शरीर को हानि पहुंचाते हैं, और मृत्यु का कारण बन जाते हैं। यदि ये वात, पित्त एवं कफ सामान्य रूप से सन्तुलन में रहें तो शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करते हुये शरीर का पोषण करते हैं यद्यपि ये वात, पित्त, कफ़ शरीर के सभी भागों में रहते हैं, लेकिन विशेष रूप से वात नाभि के नीचे वाले भाग में पित्त नाभि और हृदय के बीच में, कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में रहता है।

आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। युवा अवस्था में पित्त का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर होता है। इसी तरह दिन के प्रथम पहर अर्थात सुबह के समय कफ का प्रभाव होता है। दिन के मध्य में पित्त का प्रभाव होता है। दिन के अन्त में वात का प्रभाव होता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को बात (वायु) का असर होता है। विश्लेषण जब व्यक्ति बाल्य अवस्था में होता है, उस समय कफ की प्रधानता होती है। बचपन में मुख्य भोजन दूध होता है। बालक को अधिक चलना-फिरना नहीं होता है। बाल्य अवस्था में किसी भी तरह की चिन्ता नहीं होती है। अतः शरीर में स्निग्ध शीत जैसे गुणों से युक्त कफ अधिक बनता है। युवा अवस्था में शरीर में धातुओं का बनना अधिक होता है. साथ की रक्त का निर्माण अधिक होता है। रक्त का निर्माण करने में पित्त की सबसे बड़ी भूमिका होती है। युवा अवस्था में शारिरिक व्यायाम भी अधिक होता है। इसी कारण भूख भी अधिक लगती है। ऐसी स्थिति में पित्त की अधिकता रहती है। युवा अवस्था में पित्त का बढ़ना बहुत
जरूरी होता है यदि पित्त ना बढ़े तो शरीर में रक्त की कमी हो जायेगी और शरीर को पुष्ट करने वाली धातुओं
का भी निर्माण नहीं होगा। पित्त के गुण है- तीक्ष्ण, उष्ण वृद्धा अवस्था में शरीर क्षय होने लगता है। सभी धातुयें शरीर में कम होती जाती है। शरीर में रूक्षता बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में शरीर में वायु (वात) का प्रभाव बढ़ जाता है। वायु का गुण रूक्ष एवं गति है। समय विभाजन के अनुसार दिन के प्रथम प्रहर में शीत या ठंड की अधिकता होती है। इसके कारण शरीर में थोड़ा भारीपन होता है। इसी कारण कफ में वृद्धि होती है। दिन के दूसरे प्रहर में और मध्यकाल में सूर्य की किरणे काफी तेज हो जाती है। गर्मी बढ़ जाती है। इस समय पित्त अधिक हो जाता है। अतः दिन के दूसरे प्रहर एवं मध्यकाल में पित्त प्रबल होता है। दिन के तीसरे प्रहन और सांयकाल सूर्य किरणों के मन्द हो जाने के कारण वायु का प्रभाव बढ़ता है। इसी तरह रात्रि के प्रथम प्रहर में कफ की वृद्धि होती है। रात्रि के दूसरे प्रहर में बात (वायु) की वृद्धि होती है। चूंकि रात्रि के तीसरे प्रहर या अन्तिम प्रहर में वातावरण में भी शीतल वायु बहती है, अतः शरीर के इसी वायु के सम्पर्क में आ जाने से शरीर में भी वायु बढ़ जाती है।




इसी तरह खाने-पीने के समय का वात, पित्त, कफ के साथ्या मेल है खाने को खाते समय कफ की मात्रा शरीर में अधिक होती है। खाने के बाद जब भोजन के पाचन की क्रिया शुरू होती है, उस समय पित्त की प्रधानता रहती है। भोजन में पाचन के बाद वायु की प्रधानता होती है। भोजन कफ के साथ ही मिलकर आमाशय में पहुंचता है। मुंह में बनने वाली लार क्षारीय होती है। आमाशय में जो स्त्राय होता है. यह अम्लीय है। अतः भोजन को खाते समय लार भोजन के साथ मिलकर आमाशय में पहुंचती है, जहाँ उसमें अम्ल मिलता है। अम्ल और क्षार के संयोग से भोजन मधुर (मृदु) होता है। भोजन के मधुर होने से ही आमाशय में कफ की वृद्धि होती है। भोजन जब आमाशय से आगे चलता है तो फिर पित्त की क्रिया शुरू होती है। इस पित्त के बढ़ने से अग्नि प्रदीप्त होती है, जो भोजन को जलाकर रस में बदल देती है भोजन के रस में बदल जाने के बाद ही इसमें से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, मल-मूत्र आदि बनते हैं और इस स्तर पर वायु की अधिकता होती है। इस वायु के कारण ही मल-मूत्र का शरीर से निकलना होता है। इस तरह शरीर में प्रतिदिन प्राकृतिक रूप से वात, पित्त, कफ में वृद्धि होती रहती है। यह प्राकृतिक वृद्धि ही शरीर की रक्षा करती है। इस प्राकृतिक तरीके से होने वाली वात, पित्त, कफ की वृद्धि शरीर में बाधा उत्पन्न नहीं करती है, बल्कि शरीर की क्रियाओं में मदद रूप होती है। इसके विपरीत जब गलत आहार-विहार के कारण यात पित्त कफ में वृद्धि होती है, तब शरीर को हानि होती है और बीमारियाँ होती जाती हैं।



यदि शरीर में वात आदि दोषों की प्रधानता होती है तो उसका जठराग्नि पर प्रभाव पड़ता है। यदि वायु विषमगति हो जाये तो, पाचन क्रिया कभी नियमित और कमी अनियमित हो जाती है। पित्त अपने तीक्ष्ण गुणों के कारण अग्नि को तीव्र कर खाये हुये आहार को समय से पहले ही पचा देता है। कफ अपने मृदु गुण के कारण अग्नि को मृदु बनाकर उचित मात्रा में खाये हुये आहार का सम्यक् पाचन नियमित समय में नहीं कर पाता है। यदि वात, पित्त और कफ तीनों समान मात्रा में रहे तो उचित मात्रा में खाये हुये आहार का निश्चित समय से पाचन हो जाता है।


1 टिप्पणियाँ

  1. पेट की खराबी - गैस, अपच, उल्टी,डकार,पेट दर्द, पेट की बीमारी दूर करे Click Here

    जवाब देंहटाएं
और नया पुराने