खाने के लिए सबसे अच्छा तेल कौन सा है जानिए आयुर्वेदिक ग्रंथ अष्टांग हृदयम से - महर्षि वाग्भट

अष्टांगहृदयम् के अनुसार तेलों के बारे में जानकारी ।



महर्षि वाग्भट के अनुसार शुद्ध तेल वात दोष को कम करता है । वात दोषों को कम रखने के लिए हमें हमेशा शुद्ध तेलों का प्रयोग करना चाहिए । हमारे शरीर पर तेल की मालिश करना चाहिए जिससे कि वात रोगों को कम किया जा सके ।


वात दोष के प्रकार- घुटने में दर्द करना, जोड़ों का दर्द होना, गैस का बनना, पेट में दर्द होना, पूरे शरीर में चुभन होना आदि ।




तैलं स्वयोनिवत्तत्र मुख्य तीक्ष्णं व्यवायि च त्वग्दोषकृदचक्षुष्यं सूक्ष्मोष्णं कफकृत्र च ।। कृशानां बृंहणायालं स्थूलानां कर्शनाय च बढविटकं कृमिघ्नं च संस्कारात्सर्वरोगजित् ।।


सामान्य तेल का वर्णन- सभी तेल अपने-अपने उत्पत्तिकारणों के समान गुण वाले होते हैं । सभी तेलो में "तिल का तेल" मुख्य होता है, क्योंकि तेल शब्द की उत्पत्ति ही तिल शब्द से होती है।



तिल का तेल - नेत्रों के लिए हानिकारक, सूक्ष्म तथा उष्ण होता है । यह स्निग्ध होने पर भी कफकारक नहीं होता, कृश पुरुषों को पुष्ट करने में समर्थ है, अतएव वह बृहण कार्य भी करता है । स्थलों को कुश करता है, पुरीष को बांधता है, कृमिनाशक है और संस्कार करने से वात आदि दोषों को नष्ट करता है ।

वृशानां बृंहणायाऽलम्' यह तिलतैल जो दुबले हैं, उन्हें पुष्ट करने में समर्थ हैं और 'स्थानांकनायव स्थूल पुरुषों को कृश भी करता है । ये गुण इसके परस्पर विरुद्ध है ? 

इसका समाधान यह तेल कृश पुरुष के संकुचित हुए स्रोतों में जाकर व्यवाधि गुण के कारण उनमें प्रवेश कर उन स्रोतों को रस आदि धातुओं को वहन करने की शक्ति देकर उनका बृहण करता है और यह वातदोष तथा कफदोष का क्षय करके स्थूल पुरुषों को कृश करता है। 


'तैलं वातश्लेष्मप्रशमनानाम्'।



सतिक्तोषणमैरण्डं तेलं स्वादु सरं गुरु वर्मगुल्मानिलकफानुदरं विषमज्वरम् ॥ 

रुक्शोफौ च कटीगुह्यकोष्ठपृष्ठाथयौ जपेत् । तीवणोष्णं पिच्छिलं विनं, रक्तैरण्डोद्भवं त्वति ।।


एरण्ड तेल के गुण - यह तेल कुछ तक्त ( तीखा ) एवं कुछ कटु ( कड़वा ) तथा मधुर रस वाला, विरेचक और पचने में भारी होता है । यह अण्डवृद्धि गुल्मरोग, वातरोग, कफरोग, उदररोग एवं विषमज्वर का विनाश करता है । कमर, गुह्यप्रदेश, समस्त कोष्ठ के अवयवों, पीठ की पीड़ा तथा सूजन को जड़ से समाप्त कर देता है ।


लाल एरण्ड का तेल – यह तीक्ष्ण, उष्ण, पिच्छिल एवं अप्रिय गन्ध वाला होता है ।


कटिशू में इसकी शीघ्र गुणकारिता को देखकर कहा गया है-'आमवातगजेन्द्र क्टीविपिनचारिणः एक एवं निहन्ताऽसी एरण्डतैलकेशरी ॥


अर्थात् आमवातरोग रूपी कमररूपी वन में घूमने वाले हाथी को मारने वाला यह एरण्ड तेल रूपी सिंह अकेला काफी है और इसका प्रयोग विरेचन के लिए किया जाता है । इसका प्रयोग करने के लिए ऋतु एवं देश-काल का विचार कर लेना चाहिए । पूर्ण अवस्था वालों को २ या ४ तोले की मात्रा में इसे दूध में मिलाकर देना चाहिए । बच्चों की नाभि के चारों ओर इसे गुनगुना कर मालिश कर देने से भी वही लाभ होता है ।



कटुणं सार्थपं तीक्ष्णं कफशुक्रानितापहम् लघु पित्ताम्रकृत् कोठकुष्ठाशव्रणजन्तुजित् ॥


सरसों का तेल – सरसों का तेल कटु, उष्ण, तीक्ष्ण होता है । यह कफ, शुक्र तथा वात दोषनाशक है, पित्त एवं रक्तवर्धक है, कोठ (जुलपती या पित्त उभाना), कुष्ठरोग, अशोरोग, व्रण तथा क्रिमियों को नष्ट करता है ।


सरसों वर्ण से दो प्रकार की होती है- 

१. लाल तथा २. पीली । 


इनमें लाल सामान्य है। इसका तेल निकाला जाता है । पीली सरसों पूजा-पाठ आदि शुभकृत्यों में सर्वत्र प्रयोग में लायी जाती है । पीली सरसों का प्रयोग कृत्या (सारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन ) आदि में भी होता है । यह भी दो प्रकार की होती है १ मीठो तथा २ कड़वी, 


मीठी सरसों का शाक पर्वतीय क्षेत्रों तथा पंजाब आदि में बड़े चाव से खाया जाता है । कड़वी सरसों को राई या लाई भी कहा जाता है । नैनीताल आदि क्षेत्रों में इसे बादशाहलाई भी कहते हैं । इसके पत्ते दो-चार इंच बड़े होते हैं, इनका शाक भी अत्यन्त रुचि वाला होता है । इसका तेल झालदार होता है, नासिका तथा त्वचा पर लगाने से पुनचुनाता है। साहित्य दर्पणकार ने 'तरुणं सर्षपशाकम को ग्रामीणों का भोजन का है। यह नागरिकों को मिलता भी कहाँ है ?



आशं स्वाद हिमं के गुरु पित्तानिलापहम् ।


बहेड़ा की गिरी का तेल- बहेड़ा का तेल स्वादु (मधुर), शीतल, बालों के लिए हितकर, पचने में भारी, पित्त तथा वात विकारों का नाश करता है ।



नात्युषण निम्बजं तिक्तं कृमिकुष्ठकफप्रणुत् ।।


नीम की गिरी का तेल- निबौलियों से निकाला गया तेल अधिक उष्णविर्य वाला नहीं होता, स्वाद में तिक्त होता है । यह किमियों, कुष्ठरोगों तथा कफ रोगों का नाश करता है ।




उमाकुसुम्भजं चोष्णं त्वग्दोषकफपित्तकृत् ।


अलसी एवं कुसुम्भ तेल - अलसी (अलसी या तीसी) तथा कुसुम्भ (बरें) के तेल उष्णवीर्य होते हैं, त्वचा के विकारों, कफदोष तथा पित्तदोष को बढ़ाते हैं ।


तैल कितने प्रकार के होते है / तेलों के नाम


विवरण - तेलों की संख्या अनन्त हो सकती है । फिर भी कुछ तैल ऐसे हैं जो मिलते हैं, जिनकी आवश्यकता पड़ती रहती है । उनका नाम मात्र हम यहाँ कर रहे हैं- 

१. मूलक (मूली के बीजों का ) तेल, 

२. दन्ती (जमालगोटा) का तेल, 

३. इंगुदी (हिंगोट ) के बीजों का तेल,

४. सरसों का तेल, 

५. राई का तेल, 

६. करञ्ज (डिठौरी) का तेल, 

७. नीम का तेल, 

८. सहजन के बीजों का तेल, 

९. सुवर्चला ( हुलहुल) के बीजों का तेल, 

१०. पीलु के बीजों का तेल, 

११. नीप ( कदम्ब ) के बीजों का तेल, १२. शंखिनी वृक्ष के बीजों का तेल १३. तुवरक (चालमोगरा ) का तेल १४. आरुष्कर (भिलावा) का तेल, 

१५. बिभीतक (बहेड़ा की गिरी ) का तेल, 

१६. अतिमुक्तक (माधवीलता के बीजों ) का तेल, 

१७. अक्षोट (अखरोट की गिरी ) का तेल, 

१८. नारिकेल की गिरी का तेल, 

१९. मधूकबीजों का तेल, 

२० त्रपुष ( खीरा ) के बीजों का तेल, २१. कूष्माण्ड-बीजतेल, 

२२. श्लेष्मातक (लिसोड़ा) के बीजों का तेल, 

२३. राजादन (चिरौंजी) का तेल, 

२४. अगुरुसारतेल, 

२५. सरल ( चीड़ ) सार का तेल (गन्धाविरोजा), 

२६. देवदारुसार (तारपीन ) का तेल, २७. शिंशिपा (सार) का तेल, 

२८. श्रीपर्णी ( गम्भारी ) के बीजों का तेल, 

२९. किंशुक (पलाश ) के बीजों का तेल, 

३०. खर्बुजा के बीजों का तेल, 

३१. बादाम का तेल तथा अन्य अनेक तेल !


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