आयुर्वेद के अनुसार कौन सी सब्जी खाएं | सबसे अच्छी सब्जी कोन सी है ।

अष्टांगहृदयम् के अनुसार कौनसी सब्जी खानी चाहिए ।


सब्जियों का वर्णन – पाठा, शठी ( कचूर ). सूषा (कासमर्द या कसौदीं), सुनिषण्ण ( चौपतिया), सतीनज (तीनी), राजक्षव (नकछिकनी) तथा बथुआ—– ये सभी शाक त्रिदोषनाशक ( वात, पित्त, कफ ), लघु ( हल्की ) एवं ग्राही होते हैं ।



जानिए वात, पित्त एवं कफ क्या है ।


वात-पित्त-कफ ये सभी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहते हैं, तथापि ये क्रम से विशेष कर के किस प्रकार रहते हैं, इसे बतलाया जा रहा है— अवस्था का अन्तिम भाग वृद्धावस्था, दिन का अन्तिम भाग २ से ६ बजे तक, रात्रि का अन्तिम भाग २ से ६ बजे तक, भुक्त ( अन्न के पचने) का अन्तिम काल वायु के प्रकोप होने का है। अवस्था का मध्य भाग ( युवावस्था ), दिन का मध्य भाग १० से २ बजे तक, रात्रि का मध्य भाग १० से २ बजे तक, भुक्त ( अन्न के पचने) का मध्यकाल पित्त के प्रकोप होने का है। अवस्था का आदि भाग ( बाल्यावस्था), दिन का प्रथम भाग ६ से १० बजे तक, रात्रि का प्रथम भाग ६ से १० बजे तक, भुक्त ( अन्न के पचने ) का आदिकाल कफ के प्रकोप का काल है।













आयुर्वेदिक ग्रंथ अष्टांग हृदयम से जानिए कौन सी सब्जी खाएं और कौनसी ना खाएं ।


शाकभेद ( सब्जियों के प्रकार ) – १. पत्र, २. पुष्प, ३. फल, ४. नाल, ५. कन्द और ६. संस्वेदज — इस प्रकार शाकों के छः भेद होते हैं । ये उत्तरोत्तर एक-दूसरे से गुरु ( भारी ) होते हैं, शास्त्रों में शाकों की निन्दा लिखी से है । यथा — 'शाकेन रोगा वर्धन्ते' और यह भी कहा है - ये विष्टम्भी, गुरुपाकी, रूक्ष आदि भी होते हैं । फिर भी ये प्रतिदिन खाये जाते हैं, अतः इन्हें सामान्य बात समझना चाहिए अर्थात् इनका अधिक सेवन न करें


सबसे फायदेमंद सब्जी कोन सी है ?


काकमाची या मकोय का वर्णन काकमाची ( मकोय की पत्तियों) की सब्जी तीनों दोषों का नाश करने वाला, कुष्ठरोग का विनाशक, वीर्यवर्धक, कुछ उष्णवीर्य, रसायन गुणों से युक्त, सर ( मल को बाहर करने वाला) तथा स्वरयन्त्र ( वाणी ) के लिए हितकर होता है ।


ग्रहण्यर्शोऽनिलश्लेष्महितोष्णा ग्राहिणी लघुः ।

– चाङ्गेर्यम्लाऽग्निदीपनी ।।


चांगेरी ( तिपतिया) की सब्जी — यह स्वाद में अम्ल, अग्निवर्धक, ग्रहणीरोग, अर्शोरोग, वातविकार तथा कफविकार नाशक होता है । यह उष्णवीर्य, मल को बाँधने वाला और लघु ( शीघ्र पचने वाला ) होता है ॥



अन्य शाक – पटोल (परवल ), सप्तला (सातला ), अरिष्ट (नीम ), शार्गेष्टा (काकतिक्ता –चक्रपाणि), अवलगुजा ( बाकुची के पत्ते, फलियाँ तथा बीज ), अमृता ( गिलोय या गुरुच के पत्ते ), वेत्राग्र ( बेंत के नये अंकुर ), बृहती ( वनभण्टा ), वासा (अडूसा), कुन्तली (छोटा तिल-विशेष का पौधा), तिलपर्णिका, मण्डूकपर्णी ( ब्राह्मीभेद के पत्ते ), कर्कोट (ककोड़ा का फल ), कारवेल्लक (करेला ), पर्पट (पितपापड़ा), नाड़ी ( नाड़ीशाक ), कलाय ( मटर ), गोजिह्वा ( गाजवाँ ), वार्ताक (बैंगन), वनतिक्तक ( पथ्यसुन्दर अर्थात् हरीतिकी, करीर ( कैर के फल या बाँस के अंकुर ), कुलक (छोटा जंगली करैला), नन्दी ( पारसपीपल के पत्ते ), कुचैला ( काली पाठा), शकुलादनी ( कुटकी ), कठिल्ल ( दीर्घपत्रा पुनर्नवा ), केम्बुक ( करेमू ), कोशातक ( कृतबेधन तरोई ) और कर्कश (स्वल्पकर्कोटक -चक्र. कबीला के पत्र ) – ये पदार्थ शीतवीर्य, स्वाद में तिक्त, पाक में कटु हैं, मल को बाँधने वाले हैं, वातकारक, कफ तथा पित्त दोषशामक हैं ।


विवरण कृपया ध्यान दे ऊपर जिन २८ सब्जियों के नाम गिनाये गये हैं, उनमें अनेक परिचय की दृष्टि से विवादास्पद हैं, अतएव कोई टीकाकार किसी द्रव्य का कोई पर्याय दे रहा है तो कोई कुछ । यह विवाद औषधद्रव्य-विशेषज्ञों के सामूहिक निर्णय की अपेक्षा रखता है । विशेषज्ञ भी वे हों जो पूर्वाग्रह या दुराग्रह से ग्रस्त न हों, क्योंकि विगृह्यसम्भाषा से निर्णीत विषय सिद्धान्त रूप में परिणत नहीं हो पाते । ऐसा ही एक द्रव्य है–वनतिक्तकम् । आचार्य चक्रपाणि इसे पथ्यसुन्दरम्, श्री अरुणदत्त वत्सकः, श्री हेमाद्रि किराततिक्तम्, शब्दमाला— हरीतकी, वैद्यकनि०– लोध्रवृक्ष तथा रत्नमाला—वनतिक्तायां, पाठायाम् । इसी प्रकार अन्य अनेक द्रव्य हैं।



हृद्यं पटोलं कृमिनुत्स्वादुपाकं रुचिप्रदम्


परवल की सब्जी—यह हृदय के लिए हितकारक, क्रिमिनाशक, पाक में मधुर तथा भोजन के प्रति रुचि (इच्छा) को उत्पन्न करता है ।



पित्तलं दीपनं भेदि वातघ्नं बृहतीद्वयम्


बृहतीद्वय का वर्णन - वनभण्टा तथा कण्टकारी के फलों की सब्जी पित्तवर्धक, जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला, मलभेदक तथा वातनाशक होता है ॥



करेला की सब्जी — यह कुछ कटु ( तिक्तरस युक्त या कड़वा), अग्निदीपक ( भूख बढ़ाने वाला ) तथा कफनाशक द्रव्यों में उत्तम है ॥



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वार्ताकं कटु तिक्तोष्णं मधुरं कफवातजित् । सक्षारमग्निजननं हृद्यं रुच्यमपित्तलम्


बैगन की सब्जी — यह दो प्रकार का होता है - १. कटु तथा तिक्त, २. मधुर । 

दोनों प्रकार के बैगन उष्णवीर्य, कफ तथा वात नाशक होते हैं । इनमें कुछ अंश क्षार भी होता है । ये जठराग्नि को बढ़ाने वाले, हृदय के लिए हितकर, रुचिकारक तथा कुछ पित्तकारक भी होते हैं ।



करीरमाध्मानकरं कषायं स्वादु तिक्तकम्


करीर की सब्जी - यह आध्मान (अफरा ) कारक होता है, रस में कषाय, मधुर तथा तिक्त होता है ।



तोरई तथा बाकुची की सब्जी — ये दोनों बँधे हुए मल का भेदन करने वाले तथा अग्निदीपक होते है ।


तण्डुलीयो हिमो रूक्षः स्वादुपाकरसो लघुः । मदापेत्तविषाम्रघ्नः 


तण्डुलीय (चौलाई ) की सब्जी — यह शीतवीर्य, रूक्ष, रस तथा पाक में मधुर एवं लघु ( हल्का ) होता है । यह मदविकार (मदात्यय), पित्तविकार, विषविकार तथा रक्तविकार (विशेषकर रक्तप्रदर) का विनाश करता है ।



स्निग्धं शीतं गुरु स्वादु बृंहणं शुक्रकृत्परम् ।


मुज्जातक ( कन्द - विशेष) की सब्जी — यह वात तथा पित्तविकारों का नाशक होता है; स्निग्ध ( चिकना ), शीत, गुरु ( भारी ), स्वाद में मधुर, शरीर को पुष्ट करने वाला तथा शुक्रवर्धक ( वीर्य ) होता है ।



गुर्वी सरा तु पालङ्कया..


पालक की सब्जी — यह गुरु ( भारी ) होने के कारण देर में पचता है तथा मलभेदक होता है । देशभेद से इसका स्वादभेद भी देखा जाता है अर्थात पालक की सब्जी का स्वाद भिन्न - भिन्न स्थानों पर भिन्न - भिन्न हो सकता है ।



उपोदिका (पोई) की सब्जी — यह भी गुरु ( भारी ) एवं सर ( पेट की सफाई ) गुणों से युक्त होती है तथा मद का नाश भी करती है ॥



पालङ्कयावत्स्मृतश्चञ्चुः स तु सङ्ग्रहणात्मकः ।


चञ्चु की सब्जी— इसके सामान्य गुण पालक के समान होते हैं । इसका विशेष गुण है — ग्राही होना ।



कूष्माण्ड आदि का वर्णन कूष्माण्ड (कोहड़ा, पेठा ), तुम्ब (जिसकी साधु लोग तुम्बी या कमण्डलु बनाते हैं), कालिंग (तरबूज), कर्कारु (खरबूजा), उर्वारु (ककड़ी या खीरा), तिण्डिश ( टिंडे ), त्रपुस (बड़ा खीरा), चीनाक (चीना ककड़ी) और चिर्भट ( फूट ) – ये सभी कफकारक, वातकारक, मलभेदक, विष्टम्भी, अभिष्यन्दी, विपाक तथा रस में मधुर एवं गुरु होते हैं ।



वल्लीफलानां प्रवरं कूष्माण्डं वातपित्तजित् । बस्तिशुद्धिकरं वृष्यम्


कूष्माण्ड (कोहड़ा ,कदीमा या कद्दू) के गुण-लताओं में फलने वाले उक्त सभी फलों में कूष्माण्ड उत्तम माना गया है । यह वात तथा पित्त विकार का शमन करता है, बस्ति (मूत्राशय) को शुद्ध करता है और वीर्य को बढ़ाता है । 


त्रपुस का वर्णन – त्रपुस ( बड़ा खीरा ) कूष्माण्ड आदि से अधिक मूत्रकारक होता है । 


तुम्बं रूक्षतरं ग्राहि कालिङ्गैर्वारुचिर्भटम् । बालं पित्तहरं शीतं विद्यात्पक्वमतोऽन्यथा ।


तुम्ब या तुम्बा (गोल लौआ या लौकी) –तरबूज, ककड़ी, फूट ये सब अत्यन्त रूक्ष ( चिकनाई हीन ) तथा मल को बाँधने वाले होते हैं । ऊपर कहे गये फल जब तक बाल (मुलायम) रहते हैं तब तक इनका गुण पित्तनाशक होता है और ये शीतवीर्य होते हैं । जब ये पक जाते हैं, तब पित्तकारक एवं उष्णवीर्य हो जाते हैं ।



शीर्णवृन्त ( पका हुआ ) फलशाक— शीर्णवृन्त ( जो शाकफल अपने डण्ठल से अलग हो गया हो) शाक कुछ खारापन, पित्तकारक, कफदोष तथा वातदोष का विनाशक, रुचिकारक, जठराग्निदीपक तथा हृदय के लिए हितकर होता है । यह वाताष्ठीला तथा आनाह (अफरा ) रोगों का विनाशक एवं लघु होता है ।



कलम्ब आदि का वर्णन – कलम्ब ( कदम्ब या करेमू), नालिका (नालीशाक), मार्ष ( मरसा), कुटिञ्जर ( ताम्रमूलक या तन्दुलक), कुतुम्बक (द्रोणपुष्पी–गूमा), चिल्ली ( क्षारपत्रक शाक, लाल बथुआ), लट्वाक (गुग्गुलशाक), लोणीका (लोणार, सलूनक, कुलफा ), कुरूटक ( स्थितिवारक, शितिवारी ), गवेधुक ( तृणधान्य ), जीवन्त ( जीवन्ती ), झुञ्झु (चुच्चू ), ऐडगज ( चकवड़ ), यवशाक ( छोटे पत्तों वाली चिल्ली या जौ के कोमल पत्ते), सुवर्चल (हुलहुल), सभी प्रकार के आलू, सभी प्रकार के वे अन्न जिनकी दालें बनायी जाती हैं ( जैसे—–चना, अरहर, मूँग, उड़द, मसूर, कुलथी आदि) और लक्ष्मण (मुलेठी के पत्ते ) – उपर्युक्त सभी शाक स्वाद में मधुर, रूक्ष, लवणरस युक्त, वात तथा कफ कारक, देर में पचने वाले, शीतवीर्य, मल-मूत्र निकालने वाले और प्रायः ये देर से पचते हैं। यदि इन्हें उबाल कर इनका रस निचोड़ कर घी या तेल में भलीभाँति भूँज लिया जाता है, तो ये दोषकारक नहीं होते।।



करंज की सब्जी करंज के कोमल पत्तों या अंकुरों की सब्जी जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला कफ एवं वात नाशक होता है और मल की रुकावट को दूर करता है ।



शतावर्यङ्कुरास्तिक्ता वृष्या दोषत्रयापहाः ।


शतावरी के अंकुरों की सब्जी - यह स्वाद में हलका तिक्तरस वाला, वीर्यवर्धक तथा तीनों दोषों वात पित्त कफ का विनाशक होता है ।


विवरण – शतावरी या शतावर वृष्य (वीर्यवर्धक) ओषधियो में उत्तम है । नैनीताल तथा अलमोड़ा आदि पर्वतीय क्षेत्रों में यह पर्याप्त रूप में पायी जाती है । इसके अंकुरों को पर्वतीय भाषा में 'कैंरुआ' कहा जाता है । ये चैत्रमास के अन्तिम दिनों से आषाढ़ तक अधिक मात्रा में निकलते रहते हैं । आरम्भ में ये दो-चार दिनों तक सुकोमल होते हैं । इनका संग्रह कर छोटे-छोटे टुकड़े काटकर सब्जी बना ली जाती है । इसे रोटी के साथ खाया जाता है । यह पौष्टिक तथा रुचिवर्धक होती है । यह अंकुरशाक है ।



रूक्षोष्णमम्लं कौसुम्भं गुरु पित्तकरं सरम् ।


कुसुम्भ की सब्जी कुसुम्भ (कुसुम) के पत्तों की सब्जी रूक्ष, उष्णवीर्य, अम्ल, गुरु ( देर से पचने वाला), पित्तकारक तथा सर ( रेचक / सफाई ) होता है । 


गुरूष्णं सार्षपं बद्धविण्मूत्रं सर्वदोषकृत् ।

 सरसों के पत्तों की सब्जी — यह पाचन में गुरु, उष्णवीर्य, स्वाद में कुछ अम्ल, पाचन में मल-मूत्र की प्रवृत्ति में रुकावट डालने वाला तथा त्रिदोषकारक होता है ।



बालमूली की सब्जी — जो मूली कच्ची ( रूढ़ न हुई हो) वह अव्यक्त रस वाली या कुछ खारापन तथा तीतापन लिये होती है । वह तीनों दोषों का नाश करती हैं, लघु तथा कुछ उष्णवीर्य वाली होती है । मूली गुल्म, कास, क्षय, श्वास, व्रण, नेत्रविकार, कण्ठविकार (स्वरभेद आदि), ज्वररोग, अग्निमान्द्य, उदावर्त तथा पीनस रोगों को नष्ट करती है ।



रसे पाके च कटुकमुष्णवीर्यं त्रिदोषकृत् । गुर्वभिष्यन्दि च


वृद्धमूली की सब्जी - बड़ी मूली रस एवं विपाक में कटु, उष्णवीर्य, त्रिदोषकारक, देर में पचने वाली तथा अभिष्यन्दी होती है ॥


स्निग्धसिद्धं तदपि वातजित् ।।


स्नेहसिद्ध मूली की सब्जी — यदि बड़ी मूली को घी में भलीभाँति पका लिया जाय तो यह वातनाशक होती है ।।



आकृतिभेद से मूली दो प्रकार की होती है— १. गोल तथा २. लम्बी । लम्बी मूली भी छोटी-बड़ी भेद से दो प्रकार की होती है— १. लघुमूलक और २. नेपालमूलक । ये भी नयी एवं पुरानी भेद से पुनः दो प्रकार की होती है । गर्मियों में मिलने वाली मूली स्वाद में कटु होती है, जाड़ों में होने वाली मूली मधुर होती है । इसे नमक-मिरच लगाकर खाया जाता है । कच्ची मूली की सब्जी भी बनाया जाता है और सलाद के रूप में कच्चा भी खाया जाता है । इसी के भेद हैं—गाजर, चुकन्दर, शलजम आदि ।


मूली को काट कर सुखा लिया जाता है । बाद में पानी में भिगाकर इसका भी शाक के लिए प्रयोग होता है । यह सब वर्णन किसी भी जाति की बालमूली का है । जब यह रूढ़ हो जाती है, इसके भीतर जाली पड़ जाती है और बाहर का भाग कड़ा हो जाता है तब यह अग्राह्य हो जाती है। सुखाये सभी शाक विष्टम्भी तथा वातकारक होते हैं, केवल सुखाए हुए मूली के शाक को छोड़कर ।


वात श्लेष्महरं शुष्कं सर्वम्


सूखी मूली की सब्जी – सुखायी गयी सभी प्रकार की मूलियाँ वात एवं कफ नाशक होती हैं ।



कच्ची मूली की सब्जी -  सभी प्रकार की कच्ची मूलियाँ वात आदि दोषकारक होती हैं ।



सुरसा की सब्जी हिचकी, कास, विषविकार, श्वास, पार्श्वशूल ( पसलियों में पीड़ा का होना ) तथा मुख की दुर्गन्ध का विनाश करता है । 


सुमुख नामक तुलसी की सब्जी—यह अधिक विदाहकारक नहीं होता है ।

दूषीविष तथा शोथरोग का विनाश करता है ।



हरा धनिया की सब्जी -यह थोड़ा तीता तथा मधुर होता है । मूत्रल तथा पित्तकारक नहीं होता ।



लहसुन की सब्जी - इसका कन्द विशेष करके तीक्ष्ण एवं उष्णवीर्य होता है । इसका विपाक कटु होता है । यह सर है, हृदय के लिए तथा केशों के लिए हितकर है, पचने में गुरु, वीर्यवर्धक, स्निग्ध, दीपन, पाचन, अस्थिभग्न को जोड़ने वाला, बलवर्धक, रक्त एवं पित्त को दूषित करने वाला है । यह किलास ( श्वित्र ), कुष्ठ, गुल्म, अर्श, प्रमेह, क्रिमिरोग, कफविकार, वातविकार, हिचकी, पीनस, श्वास और कास रोग का विनाश करता है। यह रसायन है ।


विवरण - यहाँ लहसुन के केवल कन्द के गुण दिये गये हैं । प्रसंगवश उसके अन्य अंगों का वर्णन भी प्रस्तुत है—इसके पत्र खारे तथा मधुर होते हैं और इसका मध्यभाग अधिक मधुर एवं पिच्छिल होता है । कभी-कभी इसके मध्यभाग में भी लशुनकन्द पाये जाते हैं, औषध में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है ।


प्याज की सब्जी — यह लहसुन से कुछ कम गुणों वाला होता है । यह कफकारक है तथा पित्तकारक कम होता है ।


कफवातार्शसां पथ्यः स्वेदेऽभ्यवहृतौ तथा ॥ ११२ ॥ तीक्ष्णो गृञ्जनको ग्राही पित्तिनां हितकृन्न सः ।


गाजर की सब्जी—यह कफविकार, वातविकार तथा अर्शोरोग में हितकर होता है। व्रणशोथ आदि पर इसका लेप कर के स्वेदन किया जाता है एवं शाक बनाकर इसे खाया भी जाता है। गाजर की सब्जी तीक्ष्ण गुणवाला, मल को बाँधने वाला तथा यह पित्तविकार वालों के लिए हितकर नहीं है ॥



उपरोक्त दिया गया लेख प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रंथ अष्टांग हृदयम जिसकी रचना महर्षि वाग्भट ने की है, से लिया गया है ।

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